khas log

Saturday 9 July 2011

ना चाहते हुवे भी नाम तेरा लेता है बेचैन



तुझे हंसने से फुर्सत न थी मुझे बेबसी से
फिर कैसे तार्रुफ़ करवाता तेरा जिंदगी से
कुछ भी ख्याल न आया मेरी हालत का तुझे
मुह छुपा कर रोता रहा मैं बैठा बेबसी से
क्यों नहीं समझते महोब्बत के तुम उसूल
दर्दे-दिल नहीं कहा जाता हर किसी से
मेरे जज्बात ना समझकर गजब किया तुने
अब जीता हूँ ना मरता हूँ अपनी ख़ुशी से
तुने जिस रोज़ से बुझाया उम्मीद का चिराग
रिश्ता सा कट गया मेरा हसरतो की रोशनी से
ना चाहते हुवे भी नाम तेरा लेता है बेचैन
क्यों कर दिया तुने आखिर लाचार जी से

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